चंद्रयान-3 की सफलता और आदित्य-1 ने वैश्विक नेतृत्व करने की भारतीय महत्वाकांक्षा को ताकत दी है। विज्ञान में अब दुनिया भारत का लोहा मानने को मजबूर है। कोरोना महामारी के दौरान भी भारतीय फार्मा कंपनियों ने कम समय में टीके मुहैया करवाकर देश को महामारी से लड़ने में मदद की थी। इससे साफ है कि भारत किसी भी परिस्थिति से निपटने में सक्षम है।
अंतरिक्ष और स्वास्थ्य के क्षेत्र की उपलब्धियां बताती हैं कि हमारे देश में कितनी प्रतिभाएं मौजूद हैं। नीरज चोपड़ा और रमेशबाबू प्रग्गानानंद ने भी अपने-अपने खेल में भारत का मान बढ़ाया। प्रतिभाएं हर क्षेत्र में हैं। लेकिन जरूरी नहीं कि सबको गढ़ने में एक ही ढांचे का उपयोग किया गया हो।
क्या नीरज और रमेशबाबू की उपलब्धियां वैज्ञानिकों से कम हैं? बिल्कुल भी नहीं। इस बीच एक और बहस चल रही है जिसमें राजनेताओं की पढ़ाई को लेकर तमाम तर्क दिए जा रहे हैं।
सवाल यह है कि क्या औपचारिक शिक्षा समझदारी की गारंटी है? गारंटी न सही, क्या समझदार होने के लिए औपचारिक डिग्रियां जरूरी हैं? डिग्रियां अक्षर ज्ञान दे सकती हैं, किताबी सूचना दे सकती हैं, कुछ खास डिग्रियां कौशल दे सकती हैं लेकिन डिग्री से समझदारी नहीं मिलती है।
राजनीतिक समझदारी का स्वरूप अलग होता है। राजनेता की समझदारी के लिए जो गुण चाहिए वे हैं सुनने की क्षमता, समाज की थाह लेने की क्षमता, लोगों से संवाद करने का गुण और उनके दुख-दर्द को अभिव्यक्त करने और उसका समाधान करने की क्षमता। यह सब जनता के बीच रहकर लोगों का दुख-सुख सुनकर और अनुभव से हासिल होता है, इसमें कभी-कभार औपचारिक शिक्षा से फायदा हो जाता है लेकिन यह जरूरी नहीं है।
राजनीति के लिए जिस नैतिकता, निष्ठा और जनता के प्रति ईमानदारी की जरूरत है उसका पढ़ाई-लिखाई से कोई लेना-देना ही नहीं है। राजनीति में भ्रष्टाचार, धोखाधड़ी और अनैतिकता के अधिकांश मामलों में अपराधी काफी पढ़े-लिखे लोग होते हैं। सिर्फ राजनीति में ही नहीं, जीवन के किसी भी क्षेत्र में औपचारिक शिक्षा और डिग्री का नैतिकता से कोई संबंध नहीं है।
राजनेताओं की शिक्षा के पक्ष में तर्क देना इसलिए भी बेमानी है, क्योंकि शिक्षा अगर नेताओं में गुणों का विकास करती है तो लोग स्वाभाविक रूप से बिना किसी के कहे शिक्षित लोगों को चुनेंगे, इसके लिए प्रचार-प्रसार की क्या जरूरत है? एक राजनेता की सबसे बड़ी योग्यता यह है कि उसके मतदाता उसे पसंद करें व उसे अपना सुख-दुख की घड़ी में साथी समझें।
एक राजनेता की सबसे बड़ी परीक्षा स्कूल या यूनिवॢसटी की परीक्षा नहीं बल्कि चुनावी परीक्षा होती है। उस परीक्षा के अलावा उस पर औपचारिक डिग्री होने की अपेक्षा या बंदिश लादना फिजूल है।
जरूरी यह है कि जिस जनता का नेतृत्व राजनेतना करते हैं वो पढ़ी-लिखी हो। ताकि अपने अधिकारों के लिए लड़ सकें, ताकि नेता से जरूरी सवाल पूछ सके, ताकि चंद रुपयों के लालच में वोट बेचकर अपने बच्चों और देश का भविष्य बर्बाद न करें।