Home दुनिया स्त्री-पुरुष: भेदभाव नहीं, समानता की दिशा में सही सोच

स्त्री-पुरुष: भेदभाव नहीं, समानता की दिशा में सही सोच

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आज के आधुनिक समय में, स्त्री और पुरुष के बीच के रिश्तों को लेकर कई धारणाएं विकसित हो रही हैं। स्त्रीत्व और पुरुषत्व के बीच प्राकृतिक भेदभाव को समझने के बजाय, कुछ वर्ग इसे मिटाने या अनावश्यक रूप से प्रतिस्पर्धा का मुद्दा बनाने में लगे हुए हैं। यह विचार न केवल समाज की मौलिक संरचना को चुनौती देता है, बल्कि स्त्रियों के असली सशक्तिकरण को भी प्रभावित करता है।

स्त्रीत्व का सही अर्थ स्त्री के अद्वितीय गुणों को पहचानना और उन्हें सम्मानित करना है। भारतीय परंपराओं में स्त्री को सहनशीलता, करुणा, और शक्ति का प्रतीक माना गया है। लेकिन आधुनिक “फेमिनिज्म” का एक धड़ा इसे पुरुषों के समान होने या पुरुषों की भूमिकाओं को अपनाने के रूप में देखता है। क्या यह सही दिशा है? स्त्री को पुरुष बनकर समानता का अनुभव करने की आवश्यकता क्यों हो?

प्रकृति ने नर और नारी की भिन्नता को एक अद्भुत संतुलन के रूप में रचा है। दोनों का अस्तित्व एक-दूसरे के पूरक के रूप में है, न कि प्रतिस्पर्धा के लिए। यह समझना आवश्यक है कि समाज में लैंगिक समानता का अर्थ समान अवसर और सम्मान है, न कि एक-दूसरे की भूमिकाओं को छीनना।

आज की महिलाएं कहीं-कहीं भारतीय महिला के पारंपरिक व्यवहार और उसके मूल्यों को भूल रही हैं। परंपरागत रूप से भारतीय महिला घर और समाज के लिए आधार स्तंभ रही है। यह कहना गलत नहीं होगा कि आज की पीढ़ी ने पारिवारिक और सामाजिक मूल्यों की अहमियत को दरकिनार कर दिया है। पुरुषों को दुश्मन के रूप में देखना, या उनके अस्तित्व को मिटाने की बातें करना, स्त्री सशक्तिकरण की गलत व्याख्या है।

इंडिया वाणी राष्ट्रीय समाचार पत्र की संपादक मनीषा सिंह ने इस विषय पर सही दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है। उनका मानना है कि हमें पुरुषों को खत्म करने या उन्हें गलत ठहराने के बजाय, उस मानसिकता पर काम करना चाहिए जो पुरुषों और महिलाओं के बीच भेदभाव को बढ़ावा देती है। समाज में बदलाव मानसिकता से आता है, और इसके लिए पुरुषों और महिलाओं दोनों को अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी।

स्त्री सशक्तिकरण का असली उद्देश्य मानसिकता और सोच में परिवर्तन लाना है। यह क्रांति केवल नारों और प्रदर्शन से नहीं आएगी, बल्कि स्त्रियों और पुरुषों के पारस्परिक सम्मान और सहयोग से आएगी। “पुरुष गरियाओ मंच” जैसे विचार केवल समाज में दूरियां बढ़ाते हैं। हमें समझना होगा कि स्त्री और पुरुष के बीच मतभेद नहीं, संतुलन की आवश्यकता है।

समाज को यह सोचना होगा कि सशक्तिकरण का अर्थ क्या है और यह कैसे प्राप्त किया जा सकता है। समानता का अर्थ है अधिकार और जिम्मेदारी दोनों में संतुलन। स्त्री को पुरुष नहीं बनना है, बल्कि अपनी विशिष्टता को बनाए रखते हुए अपने अधिकारों का सम्मान करना है।

हमारी संस्कृति ने सदा से स्त्री को शक्ति और सम्मान का प्रतीक माना है। हमें इस परंपरा को जीवित रखना है और उसे नए जमाने के साथ जोड़ना है। स्त्री और पुरुष के बीच यह संतुलन ही समाज को मजबूत बनाएगा और सच्चे सशक्तिकरण की ओर ले जाएगा।

 

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